बुधवार, 7 फ़रवरी 2018

अकथ

सुबह उगते हुए सूरज को देखना
देखना ओस की कोई अकेली बूँद
खय्याम की रुबाई से रूबरू होना
या फिर गुनगुनाना मीर की ग़ज़ल
आफिस की मेज़ को बना लेना तबला
और पल भर को  जी लेना बचपन
ऐसा ही कुछ कुछ है तुम्हारा अहसास
जिसे मैं ठीक से कह नहीं पा रहा हूँ 
कभी सुनो मेरे ठहाकों में खुद को
कभी पढ़ो मेरे आँसुओं में अपनी कविता
कि ढूंढो मेरे अंधेरो में अपनी छाया
और लहलहाओ मेरे मौन में बनकर सरगोशियों की फ़सल

युगों से तुम्हें कहने की कोशिश में हूँ
मगर एक भी उपमा नहीं भाती मन को
रह जाते हो तुम हमेशा ही अकथ
जैसे अनकही रह गयी मेरी वेदना
अनलिखी रह गयी मेरी कविता
जैसे अनछुआ रह गया एक फूल
जैसे अनहुआ रह गया मेरा प्रेम
कि जैसे अनजिया बीत गया एक जीवन

सुनो !
कहीं तुम भी
किसी का जीवन तो नहीं ?

© आनंद

शनिवार, 3 फ़रवरी 2018

और कुछ है

हमें ये ग़म नहीं है और कुछ है
वही हमदम नहीं है और कुछ है

चिताएँ देह की ठंढी हुईं पर
जलन मद्धम नहीं है और कुछ है

दुखों की कब्रगाहें कह रही हैं
समय मरहम नहीं है और कुछ है

पखेरू फड़फड़ाकर लौट आया
कफ़स बेदम नहीं है और कुछ है

नफ़रतें बस मोहब्बत की जिदें हैं
मरासिम कम नहीं है और कुछ है

महक़ते गेसुओं की गुनगुनाहट
महज़ सरगम नहीं है और कुछ है

भला आनंद को कैसी विकलता
ये रंज़ोंग़म नहीं है और कुछ है ।

© आनंद