शनिवार, 28 जनवरी 2017

नहीं चहिये भाई..

घर के किस्से आम, नहीं चहिये भाई
बद अच्छा, बदनाम, नहीं चहिये भाई

कुछ साथी बस साथ खड़े हों जीवन में
ज्यादा दुआ सलाम, नहीं चहिये भाई

शायर क्या जो मन का शाहँशाह न हो
पूँछ हिलाकर नाम नहीं चहिये भाई

औरों को दुख देकर अपना काम बने
मुझको ऐसा काम नहीं चहिये भाई

बेटी गर्भ गिराया, बेटा पाने को
उनसे सीताराम नहीं चहिये भाई

दो लफ़्जों में दिल की बातें होती हैं
ज्यादा बड़ा कलाम नहीं चहिये भाई

जीवन में आनंद , भले थोड़ा कम हो
जीवन में कोहराम नहीं चहिये भाई

- आनंद

गुरुवार, 26 जनवरी 2017

अपना दर्द किनारे रख.

जितना संभव टारे रख
अपना दर्द किनारे रख

दिखता है सो बिकता है
बाहर जीभ निकारे रख

अंदर केवल जय जय है
अपने प्रश्न दुआरे रख

अंदर अंदर भोंक छुरी
ऊपर से पुचकारे रख

अच्छा मौसम आयेगा
यूँ ही राह निहारे रख

बे परवाह न हो कुर्सी
सत्ता को ललकारे रख

दुनिया कुछ तो बदलेगी
पत्थर पे सर मारे रख

जीवन में आनंद न हो
तो भी खीस निकारे रख

- आनंद

रविवार, 22 जनवरी 2017

सबको ज़ख्म दिखाने निकले

सबको ज़ख्म दिखाने निकले
हम भी क्या बेगाने निकले

पहले क़त्ल किया यारों ने
पीछे दीप जलाने निकले

जब पहुँचे हम हाल सुनाने
वो दिल को बहलाने निकले

उनकी इशरत* मेरी किस्मत
दोनों एक ठिकाने निकले

उनके बस का रोग नहीं ये
रह रह कर पछ्ताने निकले

दिल तो पहले ही उनका था
अब महसूल* चुकाने निकले

जीवन का हासिल क्या होता
हम केवल परवाने निकले

आप हश्र की चिंता करिये
हम तो धोखा खाने निकले

बिन देखे ही उम्र कट गयी
हम भी खूब दिवाने निकले

जिसे चाहिए वो ले जाये
हम आनंद लुटाने निकले

- आनंद

इशरत = मनोरंजन
महसूल = टैक्स, शुल्क

शुक्रवार, 20 जनवरी 2017

खुद को

तेरा दर्द सुख़न कर बैठा
मैं खुद को निर्धन कर बैठा

तेरा साथ खैर क्या मिलता
मैं खुद को दुश्मन कर बैठा

अमृत के किस्सों में पड़कर
मैं तो गरल वरण कर बैठा

ऐ दिल अब नुक्ताचीनी क्यों
जब खुद को अर्पण कर बैठा

पत्थर नहीं पिघलने वाले
मैं भी लाख जतन कर बैठा

'असल' दर्द का वापस दुनिया
थोड़ा  सूद ग़बन कर बैठा

दर्द  न देखा गया यार से
मुझको जिला-वतन कर बैठा

जाने किस सुख की चाहत में
मैं आनंद हवन कर बैठा

- आनंद



रविवार, 15 जनवरी 2017

ग़मों की सरपरस्ती में...

गज़ब का लुत्फ़ होता है दिल-ए-पुर-खूँ की मस्ती में
ज़िगर पर चोट खाये बिन मुकम्मल कौन हस्ती में

न जाने किस भरोसे पर मुझे माँझी कहा उसने
कई सूराख़ पहले से हैं इस जीवन की कश्ती में

हमारी देह का रावन तुम्हारी नेह की सीता
'लिविंग' में साथ रहते हैं नई दिल्ली की बस्ती में

तुम्हारी साझेदारी का कोई सामान क्यों बेचूँ
पड़ी रहने दो सब ग़ज़लें ये ग़म खुशियाँ गिरस्ती में

हमारे शहर् मत आना यहाँ सब काम उल्टे हैं
यहाँ 'आनंद' जिंदा है ग़मों की सरपरस्ती में

- आनंद