शुक्रवार, 18 जनवरी 2013

जब कभी अपने पास आता हूँ



मकबरे पर दिया जलाता हूँ
फिर जरा दूर बैठ जाता हूँ
चैन की बाँसुरी बजाता हूँ
जब कभी अपने पास आता हूँ

कोई मंज़र हसीं नही होता
अब कहीं भी यकीं नही होता
याद भी साथ छोड़ जाती है
आँख से बूँद टपक जाती है
डूब जाने का डर तो है लेकिन
गहरे सागर में उतर जाता हूँ

चैन की बाँसुरी बजाता हूँ
जब कभी अपने पास आता हूँ

शब्द का शोर नहीं भाता है
अर्थ  भी ठौर नहीं पाता है
रात इतना सुकून देती है
आजकल भोर नहीं भाता है
ये अंधेरे ही मीत लगते हैं
अब इन्हें ही गले लगाता हूँ


चैन की बाँसुरी बजाता हूँ
जब कभी अपने पास आता हूँ


हर किसी की जुदा है राह यहाँ
मांगता  रह गया पनाह यहाँ
आह हासिल है चाह की, जाना
जान ली, आरज़ू गुनाह यहाँ
आह और चाह साथ ले जाकर
आज  जमुना में छोड़ आता हूँ


मकबरे पर दिया जलाता हूँ
फिर जरा दूर बैठ जाता हूँ
चैन की बाँसुरी बजाता हूँ
जब कभी अपने पास आता हूँ

- आनंद