रविवार, 11 नवंबर 2012

तुलसी भीतर बाहरो जो चाहसि उजियार !



अँधेरे का नहीं है कोई अस्तित्व
वो तो बस
अभाव भर है
प्रकाश का
अँधेरा
न काट सकते हैं, नाही धक्का देकर भगा सकते हैं
न जला सकते हैं न मिटा सकते हैं
अँधेरे के साथ कुछ भी करना हो तो
प्रकाश के साथ कुछ करना पड़ता है
इसे मिटाने के लिए जलाना पड़ता है प्रकाश को
इसे लाने के लिए बुझाना पड़ता है प्रकाश को

प्रकाश के साथ सब क्रियाएँ संभव हैं
जलते को बुझायाजा सकता है
बुझते को जलाया
एक कमरे में नहीं तो दूसरे से ले आये
अपने घर में नहीं तो पड़ोसी से ले आये

फिर भी है, अँधेरा .....है !
जो नहीं है वो है
जो है वो नहीं है ....
शायद जो है वो दिखता नहीं हमें अपने अहं के कारण
क्या हमारा खुद को न जानना ही तो इसका कारण नहीं
चालीस साल तक आनंद  साथ रहा बुद्ध के
और नहीं जला दीप
अंत में कहना पड़ा बुद्ध को कि 'अप्प दीपो भव'
महानिर्वाण के दो दिन बाद ही आनंद हो गया था प्रकाशित फिर
आयातित प्रकाश
कोठरी में उजाला तो ला सकता है
पर निज में नहीं
एक युक्ति 'बाबा' भी बता गए हैं
"राम नाम मणि दीप धरु जीह देहरी द्वार
तुलसी भीतर बाहरो जो चाहसि  उजियार "
चुनाव आपका अपना है



प्रकाश की शुभकामनाओं के साथ...
-आनंद