शुक्रवार, 12 अक्तूबर 2012

अजीब शख्स था अपना बना के छोड़ गया


हरेक  रिश्ता सवालों  के  साथ जोड़  गया
अजीब शख्स था, अपना बना के छोड़ गया

कुछ इस तरह से नज़ारों कि बात की उसने
मैं खुद को छोड़ के उसके ही साथ दौड़ गया

तिश्नगी तो न बुझायी गयी दुश्मन से मगर
पकड़ के हाथ  समंदर के पास  छोड़ गया  

मेरी दो बूँद से ज्यादा कि नहीं  कुव्वत थी 
सारे बादल मेरी आँखों में क्यों निचोड़ गया

कहाँ से लाऊं  मुकम्मल वजूद  मैं  अपना 
कहीं से जोड़ गया वो  कहीं से तोड़ गया 

हर घड़ी  कहता था 'आनंद'  जान हो मेरी
कैसा पागल था अपनी जान यहीं छोड़ गया 

-आनंद 
१४ मई २०१२