शुक्रवार, 31 अगस्त 2012

अमृता प्रीतम और हरकीरत 'हीर'

अमृता जी का जन्म दिन या कि 'हीर' का मेरे लिए दोनों एक ही हैं ...मेरे हाथ में 'रशीदी टिकट' भी है और 'दर्द की महक' भी इस मौके पर हरकीरत 'हीर' की ही एक नज़्म जो उन्होंने खास अमृता प्रीतम के जन्म दिन पर लिखी थी साथ में उनकी ही लिखी टिप्पड़ी ,  एक चित्र भी जो मेरे लिए जीवन के सबसे कीमती या यूँ कहें कि अनमोल पलों में से एक है ...


बाएँ से इमरोज़ जी हरकीरत 'हीर' जी और मैं 

उसने कहा कि अगले जन्म तू फिर आयेगी मोहब्बत का फूल लिए 

वह कांटेदार झाडियों में उगा दर्द का फूल थी, जो ताउम्र गैरों के टूटे परों को अपने आँचल में समेटती रही... चूडियाँ टूटती, तो वह दर्द की गवाही बन खड़ी हो जाती... दर्द की शिद्दत कोई तभी समझ सकता है जब वह अपने बदन पर उसे झेलता है ... वह तो दर्द की मिट्टी से ही पैदा हुई थी ...रूह, जिस्म से हक माँगती तो वह चल पड़ती कलम लेकर और तमाम दर्द एक कागज़ के पुलिंदे में लपेट कर सिगरेट-सा पी जाती, और जब राख़ झाड़ती तो दर्द की कई सतरें कब्रों में उग आती ...
उन्हीं कब्रों से कुछ सतरें उठाकर लायी हूँ आज के दिन...

रात 
बहुत गहरी बीत चुकी है 
मैं हाथों में कलम लिए मगमूम-सी बैठी हूँ 
न जाने क्यों हर साल 
यह तारीख
यूँ ही
सालती है मुझे 
पर तू तो 
खुदा की एक इबारत थी 
जिसे पढ़ना 
अपने आप को 
एक सुकून देना है 

अंधेर मन में 
बहुत कुछ तिडकता है 
मन की दीवारें 

नाखून कुरेदती हैं तो 
बहुत सा गर्म लावा 
रिसने लगता है 

सामने देखती हूँ 
तेरे दर्द की 
बहुत सी कब्रें  
खुली पड़ी हैं 
मैं हाथ में शमा लिए 
हर कब्र की 
परिक्रमा करने लगती हूँ  

अचानक 
सारा के खतों पर
निगाह पड़ती है 
वही सारा 
जो कैद की कड़ियाँ खोलते खोलते 
कई बार मरी थी
जिसकी झाँझरें कई बार 
तेरी गोद में टूटी थीं 
और हर बार तू 
उन्हें जोड़ने की
नाकाम कोशिश करती 
पर एक दिन टूटकर 
बिखर गयी वो 

मैं एक खत उठा लेती हूँ 
और पढ़ने लगती हूँ 
"मेरे बदन पे कभी परिंदे नहीं चहचहाये 
मेरी साँसों का सूरज डूब रहा है 
मैं आँखों में चिन दी गयी हूँ"

आह !!
कैसे जंजीरों ने चिरागों तले 
मुजरा किया होगा भला ??
एक ठहरी हुई
गर्द आलूदा साँस से तो
अच्छा था 
वो टूट गयी 

पर उसके टूटने से 
किस्से यहीं 
खत्म नहीं हो जाते अमृता 
जानें और कितनी सारायें हैं 
जिनके खिलौने टूटकर 
उनके ही पैरों में चुभते रहे हैं 

मन भारी-भारी सा हो गया है 
मैं उठकर खिड़की पर जा खड़ी हुई हूँ 
कुछ फसले पर कोई खड़ा है 
शायद साहिर है 
नहीं-नहीं 
यह तो इमरोज़ है
कितने रंग लिए बैठा है 
स्याह रात को 
मोहब्बत के रंग में रंगता 

आज तेरे जन्मदिन पर 
एक कतरन सुख की 
तेरी झोली डाल रहा है 

कुछ कतरनें और भी हैं 
जिन्हें सी कर तू 
अपनी नज्मों में पिरो लेती है 
अपने तमाम दर्द 

जब मरघट की राख़ 
प्रेम की गवाही माँगती है 
तो तू 
रख देती है  
अपने तमाम दर्द 
उसके कंधे पर      
हमेशा-हमेशा के लिए 
कई जन्मों के लिए 

तभी तो इमरोज़ कहते हैं 
तू मरी ही कहाँ हैं 
तू तो जिंदा है 
उसके सीने में 
उसकी यादों में 
उसकी साँसों में 
और अब तो
उसकी नज़्मों में भी 
तू आने लगी है 

उसने कहा है 
अगले जन्म में 
तू फिर आयेगी 
मोहब्बत का फूल लिए 
जरूर आना अमृता 
इमरोज़ जैसा दीवाना 
कोई हुआ है भला !

*३१ अगस्त अमृता के जन्मदिन पर विशेष