सोमवार, 21 नवंबर 2011

एक रूहानी शाम ... औलिया के दरबार में !

कल २०-११-२०११ रविवार की शाम 
हज़रत निजामुद्दीन औलिया कि दरगाह पर अपने औलिया के साथ बीती एक शाम ..... कभी न भुलाने वाला अनुभव ..पिछले ६ महीने से जाने की सोंच रहा था .... भला हो राकस्टार फिल्म का...जिसने ये आग एकदम से भड़का दी मेरे अन्दर ..वैसे भी राकस्टार के नायक जार्डन की आत्मा मेरे अन्दर घुस गयी है जब से मैंने उसे देखा है ....जैसे किसी ने मेरे प्रेम को सेल्युलाइड पर उतार दिया हो ....
खैर अपरान्ह ३.३० पर मैं उस गली  के मुहाने पर था जहाँ औलिया का दरबार है,  बाइक और हेलमेट को गली के मुहाने पर ही एक माता जी के सुपुर्द करके मैं आगे बढा ...अन्दर जाकर दरगाह से काफी पहले ही एक जगह कदम ठिठक गये देखा तो मिर्ज़ा ग़ालिब की मज़ार का दरवाजा था बाएं हाथ पर ! मुझे ठिठकता देख एक एक बन्दे ने पुकारा आइये साहब जूते यहीं उतर दीजिये ...कोई पैसा नही पड़ेगा ...मैंने जूते वहीँ उतारे ...उसने पूछा पहली बार आये हो मैंने कहाँ हाँ ..उसने तफसील से समझाया कैसे जाना है क्या-क्या करना है कैसे चादरें चढ़ानी हैं (चादरें शब्द इस लिए की वहां अन्दर जाकर मुख्य अहाते में दो मजारें हैं एक अमीर खुसरो साहब की और दूसरी को बड़े दरबार के नाम से जाना  जाता है वो औलिया हुजुर की है )! नियाज़ (चादर और फूल बेचने वाले का नाम जो बाद में पता चला लौटकर ) ने पूछा की पूरी मज़ार की चादर चढ़ानी है या छोटी ..मैंने कहा नही पूरी मज़ार की ...और मैं तब तक शायद खुद को भूल चुका था ... मेरा चेहरा भावों में डूबा हुआ था मेरी आँखों से...बेसबब पानी बह रहा था |  पैसे का मोलभाव करने का मेरा मन जरा भी नही था ...नियाज़ ने मुझसे पुछा तो मैंने कह तो तुम्हें ठीक लगे वो दे दो , उसने दो चादरें निकाली..और इत्र की दो शीशियाँ निकल कर बोला की आप यहीं से इन पर इत्र  डाल लो वहां भीड़ में शायद आपको इतना समय न मिले हाँ गुलाब जल आपको मज़ार पर ही छिड़कना है इसलिए  इसको लेकर जाओ आप...खैर हम नियाज़ भाई का शुक्रिया अदा करके आगे बढे तो उसने मुझे रोक कर कहा .... भाई आप जो भी हैं जहाँ से भी आये हैं ...पर मेरा मन करता है की मैं सच्चे मन से आपके लिए दुआ करूं ..जाइये आपकी मुराद जरूर पूरी होगी ...अब मैं उसको कैसे कहता की मेरी मुराद वो ही  हैं जिनका मुरादी बनके मैं आया हूँ   !
अन्दर अमीर खुसरो साहब की मजार पर चादर चढ़ा  कर हम बड़े दरबार की ओर बढे ... मेरे सामने थे  मेरे औलिया और उनके सामने था मैं और मेरी रूह !




कहाँ होश था खुद का मुझे ..चादर चढ़ाई  इबादत किया चूम लिया और बाहर आगया...... शायद किसी ने मुझे सहारा  देकर बाहर निकाला था ....! बाहर कौव्वाली का दौर चल रहा था कौव्वाल कमाल साहब (नाम बाद में पता चला ) ने एक कौव्वाली शुरू की मैं उनकी बगल में बैठ गया था ..लगा की वो कौवाली नही मेरी आवाज मेरी गुज़ारिश मेरा दर्द गा रहे हैं औलिया  के सामने ...
पहला शेर उन्होंने गाया ....
दिल मैंने अपने यार को नजराना कर दिया
उस यार की अदाओं ने दीवाना कर दिया |
...मेरी तालियाँ शुरू हो चुकी थी आँख बंद थी ...मैं झूम रहा था .एक अलाप छोटा सा और फिर अगली  बात ...
दिन रात पी रहा हूँ तेरी नज़रों के जाम से
साक़ी ने मेरे नाम ये मैखाना कर दिया ...
.....वाह ! सच में मुक्त कर दिया मुझे उसने सारी कायनात करके मेरे नाम.... उसे शायद पता था की मेरी प्यास एक दो जाम से जाने वाली नही है ....कमाल साहब ने कलाम को आगे बढाया ...
मैं जल रहा हूँ , उसका मुझे कोई ग़म नही
तू शम्मा बन गया मुझे परवाना कर दिया
.... इस बार मेरे मुस्कराने की बारी थी ..लगा जैसे कोई मुझसे कुछ कह रहा हो या कुछ कहना चाह रहा हो .... मैं होठों ही होठों में बुदबुदाया जो तेरी रज़ा !...आगे का शेर
गर मौत भी मांगी तो मुझे मौत न आयी
गर जिंदगानी मांगी तो बहाना कर दिया 
..... हंस पड़ा मैं उसके खेल को उसके इशारे को सोंचकर .... मुझे कह दिया था उन्होंने जो कहना था ...| और फिर अंतिम शेर ...
लुत्फो करम  से  ऐसे  नवाजा हुजूर ने
हुश्न-ओ-लिबास तक मुझे शाहाना कर दिया
...हाँ सच ही तो है ...ये नियामत वो सब पर कहाँ बरसाते हैं की जिस से लिबास (जिस्म) से लेकर हुश्न (रूह) तक शाही हो जाए ...ये दौलत तो वो किसी  किसी को बक्सते हैं |
अजान का समय हो गाया था कौवाल साहब ने भी हारमोनियम बंद  ही कर दी जबकि मैं अभी भी प्यासा था ... ..जब मैंने उनसे गुजारिश की कि मुझे ये कलाम लिखना है, ... याद हो गया है मगर कहीं कहीं भूल रहा हूँ तो वो जरा गुस्से से बोले ...ये मेरे महबूब का कलाम है  ये किसी और  के लिए नही है ..तो मैंने कहा कि वो मेरा भी महबूब है  मेरी इस बात में नजाने मेरे चेहरे पर क्या देखा उन्होंने कि बोल चल इधर आ और अलग ले जाकर उन्होंने मुझे इसे लिखवाया फिर |



चौखट चूम कर औलिया की मैं  बाहर आगया   फकीरों को खाना खिला कर ..एक बार फिर नियाज़ भाई के पास ..नियाज़ भाई मुझे फिर ग़ालिब कि मज़ार दिखाने ले गये( वो वाकया फिर कभी ) ...हम दोनों ने एक चाय के दो हिस्से कर के पिए ...मैंने नियाज़ भाई को  गले लगाया और उनसे विदा मांगी ..चलते चलते उन्होंने कहा ...कि साहब इस आने वाले वृहस्पतिवार के बाद जो अगला वृहस्पतिवार है ...आप जरूर आइयेगा तब नौचंदी  मेला भी शुरू हो जाएगा तब और दिन पहला मुहर्रम भी है मैं आपको लेकर साथ चलूँगा अन्दर वहां मैं सबसे मिलवाऊंगा आपको ..आप जैसा आदमी कभी कभार ही आता है यहाँ  मैं बहुत खुश हूँ आपसे मिलकर ....
रास्ते भर मैं सोंचता रहा मुझ जैसा आदमी ... किस काम  का होता है .....या मेरे औलिया सुकून बक्स मेरी रूह को !!