मंगलवार, 28 दिसंबर 2010

दर्द की फ़सल था वो ...



ख़ुशी से तर-ब-तर हसीन,'एक' पल था वो,
मगर वो आज नहीं है  ज़नाब कल था वो!

राख़ के ढेर में, बैठा तलासता हूँ जिसे,
रात को जल गया, नाचीज़ का महल था वो!

वक़्त भी पंख लगा के उड़ा, तो फिर न मिला, 
आपका 'वक़्त' था, मेरे लिए ग़ज़ल था वो!

अपने घर से ही जो निकला, थके कदम लेकर,
लोग कहते हैं, गली की चहल पहल था वो  !

लोग पहचानने से भी , मुकर गए जिसको,
आपके प्यार की, बिगड़ी हुई शकल था वो!

सर झुकाए हुए , जिल्लत से, पी गया यारों,
घूंट पर  घूंट,  ज़माने का हलाहल था वो !!

आपकी झील सी आँखों में, बसा करता था,
किसी ने तोड़ दिया है, खिला कमल था वो !

बहुत गरीब था 'मनहूस',  मर गया होगा,
नाम 'आनंद' मगर , दर्द की फसल था वो!!

२० फ़रवरी १९९३ ..!

'वो' नहीं था मैं...



यूँ खुश तो क्या था, मगर गमजदा नहीं था मैं,
तुम मुझे 'जो' समझ रहे थे, 'वो' नहीं था मैं |

मेरी  बर्बाद   दास्ताँ , है  कोई   ख़ास   नहीं,
जब मेरा घर जला, तो आस पास ही था मैं |

चंद  लम्हे, जो  मुझे  जान से  भी  प्यारे  थे,
उनकी कीमत पे मैं बिका,मगर सही था मैं |

दुश्मनो को भी सजा, प्यार की ऐसी न मिले,
मेरी चाहत थी कहीं और,और कहीं था मैं |

तुमने  बेकार   मेरा  क़द  बढा  दिया   इतना,
फलक तो क्या जमीन पर भी कुछ नहीं था मैं |

घर  उदासी  ने  बसाया है, जहां   पर  आकर,
शाम तक उस जगह 'आनंद' था, वहीं था मैं |

      -----आनंद द्विवेदी. २८/१२/२०१०