मंगलवार, 30 मार्च 2010

किसी गरीब की आँखों में झांक कर देखो !
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कभी बड़ी कभी छोटी, दिखायी  देती है ,
ग़ज़ल भी, नोची खसोटी दिखायी देती है |

यह जिंदगी जो हर तरह, खरी थी सौ पैसे,
वक़्त की मार से , खोटी दिखायी देती है |

जब से उनकी दुकान चल गयी, मक्कारी की,
'फलक' पे उनकी लंगोटी दिखयी देती है |

हमारी जिंदगी के हाल न पूछो यारों ,
किसी कंगाल की बेटी दिखयी देती है |

किसी गरीब की आँखों में झांक कर देखो,
'हीर' 'राँझा' नहीं 'रोटी' दिखायी देती है |  

शुक्रवार, 26 मार्च 2010

मेरी ग़ज़ल से कहीं भूख जो मिटी होती

मेरी ग़ज़ल से कहीं भूख जो मिटी होती,
किसी गरीब की इज्ज़त नहीं लुटी होती |

कोई फुटपाथ पर भूखा नहीं सोया होता,
मेरी कलम से अगर रोटियां बटी होती |

मेरी ग़ज़ल है वो झुर्री भरा बूढा चेहरा,
कैसे इज्ज़त को छुपाये है इक फटी धोती |

भरी जवानी में भूखा नहीं सोया होता,
वक़्त से पहले कमर भी नहीं झुकी होती |

अगर ईमान बेंचकर वो कमाता दौलत,
ब्याह करने को नहीं बेटियाँ बची होती |

           ---आनंद द्विवेदी .